छुवन
सामाजिक अंतर्संबंधों से गुज़रते हुए भावों के इन्द्रधनुषी संसार को थामने की कोशिश करती छुवन की रचनाएँ जीवन की सघन अनुभूतियों की अनुगूँज हैं... एक ऐसा संसार जहाँ कहने से ज़्यादा अनकहे को आकार देने की तड़प है... ये रचनाएँ रोज़मर्रा की ज़िंदगी की उठापटक से मन की सलेट पे बने आड़े टेढ़े चिन्हों को पढ़ने की कोशिश है...आइए चलते हैं शब्द और स्मृतिचित्र के सहारे अनुभूतियों के अन्तर्जगत में...
गुरुवार, 7 मई 2015
कोहरे की चादर में लिपटा सा गाँव है
प्यार भरे दरिया में कागज़ की नाव है
पलकों पे सिहरन के बैनर हैं झंडे हैं
गिनती की बात है ज़ुबाँ नंगे पाँव है
बेमानी इंतज़ार मौसम ही छलिया है
तड़प को तसल्ली क्या अजब - गज़ब दाँव है
थोड़े से अरमां हैं थोड़े ही शिकवे हैं
थोड़ी ही चाहत की धूप है छाँव है
हसरत है दिन दिन भर गुनना है बुनना है
रिश्तों की मंडी है बहुत मोलभाव है
समन्दर रोया मगर लहरों पे हलचल थी हँसी के छींटे थे
दिशायें चुप थीं ढलती सी शाम के रंग ज़रा फ़ीके थे
पटरियों ने गले लगाना न छोड़ा सर्द रात की ट्रेनें थीं
शोर की लयबद्ध लहरी उठ रही थी गीत के बोल मीठे थे
सोया सा शहर था वीरान सी गलियाँ और पेड़ अलसाये से
फूलों की शोख खुशबू दौड़ रही थी कोहरे में रंग कहीं रूठे थे
नावों के पाँव निकल पड़े चुपके से चप्पू ने हाँक लगाई
सफ़र में मंज़िलों के निशां टिमटिमटिम बत्तियों सरीखे थे
आता वक्त अच्छा अच्छा सा जियें
ये हड़बड़ी सी थी
तो पलों को तनहा छोड़ आगे हो लिए
ये हड़बड़ी सी थी
तो पलों को तनहा छोड़ आगे हो लिए
अब कुछ मलाल सा है
कि कुछ कम कम जिए हमने
वो पल जो
गुज़र गए कहे जाते हैं
कि कुछ कम कम जिए हमने
वो पल जो
गुज़र गए कहे जाते हैं
अब मुड़ के देखें तो लगता है
पलों के समन्दर में
अनजिए पलों के द्वीप
अधूरी पहल के घने जंगल सा उग आए हैं
पलों के समन्दर में
अनजिए पलों के द्वीप
अधूरी पहल के घने जंगल सा उग आए हैं
गुज़र रहे पलों को पूरा पूरा जीने का अभ्यास कब होगा पूरा हड़बड़ी सी है
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