गुरुवार, 7 मई 2015





पेड़ गायब परिन्दे गायब हुए
ग़ैर तो थे ग़ैर अपने अब हुए

गाँव था पर दुआओं से लगा खाली
ब्रह्म पित्तर पीर गायब रब हुए


चोंच में तिनके बसेरे सफ़र में थे
दूर नाते यकायक ही सब हुए

गली और मुंडेर ने चीन्हा नहीं
गये कल से रूबरू जब-जब हुए

अब वहाँ अपने निशाँ मेहमान थे
लौटने के ख्वाब यूँ बेढब हुए


सर्दी है कठुआये पुल हैं
घना अँधेरा बत्ती गुल है

सूने सारे लैम्पपोस्ट हैं
सदमे में बैठी बुलबुल है


बस्ती बस्ती धुँआ धुँआ है
दशों दिशाएँ शोकाकुल हैं

तड़प बढ़ रही लमहा-लमहा
बेचैनी का बजा बिगुल है

भूली-बिसरी प्यार की गली
हर गुज़रा मंज़र बाबुल है


कोहरे की चादर में लिपटा सा गाँव है
प्यार भरे दरिया में कागज़ की नाव है

पलकों पे सिहरन के बैनर हैं झंडे हैं
गिनती की बात है ज़ुबाँ नंगे पाँव है


बेमानी इंतज़ार मौसम ही छलिया है
तड़प को तसल्ली क्या अजब - गज़ब दाँव है

थोड़े से अरमां हैं थोड़े ही शिकवे हैं
थोड़ी ही चाहत की धूप है छाँव है

हसरत है दिन दिन भर गुनना है बुनना है
रिश्तों की मंडी है बहुत मोलभाव है


समन्दर रोया मगर लहरों पे हलचल थी हँसी के छींटे थे
दिशायें चुप थीं ढलती सी शाम के रंग ज़रा फ़ीके थे

पटरियों ने गले लगाना न छोड़ा सर्द रात की ट्रेनें थीं
शोर की लयबद्ध लहरी उठ रही थी गीत के बोल मीठे थे


सोया सा शहर था वीरान सी गलियाँ और पेड़ अलसाये से
फूलों की शोख खुशबू दौड़ रही थी कोहरे में रंग कहीं रूठे थे

नावों के पाँव निकल पड़े चुपके से चप्पू ने हाँक लगाई
सफ़र में मंज़िलों के निशां टिमटिमटिम बत्तियों सरीखे थे


जल रही है याद की तीली
मौन आँखें हो रहीं गीली

छुवन का वो पेड़ है ठिठुरा
तड़प में हैं पत्तियाँ पीली


शोर वाले घोंसले भी मौन हैं
छल रही है रात रंगीली

दिल जले मीनार सा दुख तन गया
उठ रही है आह इक सीली

आ ज़रा कह हाल बैरन हमनवा
रोकने की पहल जब ढीली
आता वक्त अच्छा अच्छा सा जियें
ये हड़बड़ी सी थी
तो पलों को तनहा छोड़ आगे हो लिए
अब कुछ मलाल सा है
कि कुछ कम कम जिए हमने
वो पल जो
गुज़र गए कहे जाते हैं
अब मुड़ के देखें तो लगता है
पलों के समन्दर में
अनजिए पलों के द्वीप
अधूरी पहल के घने जंगल सा उग आए हैं
गुज़र रहे पलों को पूरा पूरा जीने का अभ्यास कब होगा पूरा हड़बड़ी सी है


कंचे सी आँखें वो नींद बीच तकती हैं
तड़प लिए सिसकी बन आवाज़ें कंपती हैं

पलछिन अब लम्बी सी रात इन्तज़ार भरी
दिल में ही बेरुखी कटार रोज़ धँसती है


घड़ी घड़ी उनकी ही खुशबू की छाँव तले
झूठी सी आहट पे ये दुनिया हँसती है

कहने से दूर ज़रा सुनने का मौसम है
चाहत की ढिबरी भी कोहरे में फँसती है